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सिंदबाद की नावें / पंख बिखरे रेत पर / कुमार रवींद्र

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टापू-दर-टापू हो आयीं
लौट रहीं
सिंदबाद की नावें

कभी गयीं
बौनों के देश में
और कभी अंधों के द्वीप पर
चट्टानों के नीचे
मिले नहीं मोती
सिर्फ मिले सीप-घर

कहाँ गयीं तट से टकरा कर
पता नहीं
सिंदबाद की नावें

दिन
हाथी-दाँतों के जंगल में
रात झड़े पेड़ों के नीचे
दोपहर
सुरंगों में बीती
शाम ढली आँखों को मींचे

लंगर-बिन टिकी नहीं
और बहीं
सिंदबाद की नावें