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सीमा प्रहरी सागर' / मृदुला शुक्ला

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थाह लेते हो अथाह समुंदर की
बस नहीं ले पाते खुद के मन की
बाहर जीत जाते हो जल दस्सुयों से
लेकिन अकसर हार जाते हो
भीतर की लड़ाई
बस दिखती नहीं वो हार

सपने कतरा कतरा बहते हैं समुंदर में
आँखों और समुंदर का पानी एक सा ही खारा होता हैं

जब नहीं शामिल हो पाते अपनी खुद की खुशियों में
तो समुंदर की लहरों के संगीत में ही सुन लेते हो
जचकी के ढोलकों की थाप बहन की विदाई की शहनाई

बाडवानल सुना है पढ़ा भी है
मगर भला पानी में भी कभी आग लगती है?
मगर
अक्सर तुम्हे देखा है बीच समुंदर में
झुलसते भावनाओं के बाडवानल में

लेकिन हे वीर!
झुलसना ही होगा तुम्हे इस आग में
 क्यूंकि इसी आग में पकते हैं एक मुल्क
की मीठी नींद के सपने