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सुन ज़रा आत्मा पुकारे / कौशलेन्द्र शर्मा 'अभिलाष'

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मै रहूँ नित बंधमुक्त विचार तेरे नित संवारे,
मरणधर्मी देह रूपी यंत्र में नित बंध डारे।
सुन जरा आत्मा पुकारे॥

नीर कुंड बिचर रहे वह मत्स्य ना कुछ भी विचारे,
मैं वही हूँ गगन में स्वच्छंद उड़ती सब बिसारे।
सुन जरा आत्मा पुकारे॥

वायु सी ही तीव्र वेग सुकृत्य से ली थीं बरारे,
तट निकट हो विकट से धीमी पड़ेंगी वो बयारे।
सुन जरा आत्मा पुकारे॥

फिर उठुंगी गगन तक संसार सागर के किनारे,
बादलों से कूद दुंगी संग में "अभिलाष" सारे।
सुन जरा आत्मा पुकारे॥