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सुनती हो गंगा / शर्मिष्ठा पाण्डेय

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सुनती हो गंगा !!
तुम ऐसी तो न थी
निर्मल पवित्र पुण्यदायिनी हुआ करती थी न
क्या मिला तुम्हें यहाँ के कुछ नहीं ना
अच्छी भली थीं नीलकंठ की जटाओं में
मस्तक पर धरी थीं कितना सम्मान था ना तुम्हारा

जानती हो गंगा!!
हम इंसान ऐसे ही हैं
स्वार्थी क्षुधित निर्लज्ज और
और जाने दो क्या-क्या कहूँ
जब उन्हें तुम्हारी बेहद ज़रुरत थी
थी तो कैसे कैसे
जतन किये तुम्हारे लिए
दिन को दिन नहीं रात को रात नहीं
फिर तुम्हारा भोग करते करते तुम भी हो गयी ना
बेकार की इस्तेमाल के बाद हो जाने वाली व्यर्थ थैली जिसमें
डालने लग जाते सभी अपनी-अपनी उतरन मैल
गंगा!
ये जो धरती है न वसुंधरा खुरदुरी चमड़ी वाली
यहाँ इसका भी अपना कोई छोर नहीं
ये भी ना कल्पों से गोल-गोल घूमती हांफ रही
और हम इसे और दबाते हैं
घूम और घूम
सघन दबाव में घूमते रहना असह्य है है ना गंगा
जानती हो
हम किसी के नहीं खुद अपने भी नहीं
ये जो हम चलती-फिरती स्त्रियाँ हैं ना
ये देह नहीं एक दरांती हैं
जिनसे पुरुष अपने मौसम की प्रत्येक गदराई फसल
बेहद बेदर्दी से काटता है
और
जब काटते -काटते धार कुंद हो जाती
तो, पूरी निर्ममता से घिस डालता है पत्थर पर
घिस=घिस कर ख़त्म होने को आयीं ये दरांतियों वाली स्त्रियाँ
तब भी नहीं बख्शी जातीं
इन्हें फिर आग में तपाया जाता मृतप्राय हो चुकी देह में पुनः
नवयौवन भरने को
सुनो! सीता कहीं नहीं गयी
वो हर वस्तु में है और देती रहेगी अग्निपरीक्षा

वक्त है अभी वक्त है जाओ लौट जाओ
विशाल हृदया बनने का लोभ त्याग दो
इससे पहले की और संकरी हो जाए
तुम्हारे निकास 'गोमुख' का मुख
और लौटते हुए फंस कर छटपटाने लगो तुम
इससे पहले की घटते-घटते
केवल आँख का पानी बन कर रह जाओ तुम
इससे पहले की मैल से काली होकर तुम्हें
शिव पहचान ही न पायें और पुकार बैठे
"कालगंगा"
इतिहास साक्षी है अपना घर छोड़ने वाली
यूँ ही रौंदी जाती रहीं हैं पहचानी भी नहीं जातीं
जाओ गंगा ये जगह तुम्हारे लिए नहीं
हम ऐसी ही रहेंगी जीती रहेंगी
बीज बूँद और कण से जन्म लेती रहेंगी
सहती रहेंगी मिटती रहेंगी
यूँ ही
स्त्रियाँ, गंगा और धरती!