भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

सुरसा-सा मुँह फाड़ रही है / कुँअर बेचैन

Kavita Kosh से
सम्यक (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 20:10, 8 जनवरी 2010 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=कुँअर बेचैन |संग्रह=डॉ० कुंवर बैचेन के नवगीत / क…)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

गलियों में
चौराहों पर
घर-घर में मचे तुफ़ैल-सी।
बाल बिखेरे फिरती है
महँगाई किसी चुड़ैल सी।
सूखा पेटों के खेतों को
वर्षा नयनाकाश को
शीत- हडि्डयों की ठठरी को
जीवन दिया विनाश को
भूखी है हर साँस
जुती लेकिन कोल्हू के बैल-सी।
जो भी स्वप्न संत हैं
वे तो अब भी कुंठाग्रस्त हैं
जो झूठे, बदमाश, लफंगे
वे दुनिया में मस्त हैं
हर वेतन के घर बैठी है
रिश्वत किसी रखैल-सी।
सुरसा-सा मुँह फाड़ रही है
बाजारों में कीमतें
बारूदी दीवारों पर
बैठी हैं जीवन की छतें
टूट रही है आज ज़िंदगी
इक टूटी खपरैल-सी।