भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

सूर्यास्त / फ़्रेडरिक होल्डरलिन

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 13:32, 18 फ़रवरी 2014 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=फ़्रेडरिक होल्डरलिन |अनुवादक=अम...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

कहाँ हो तुम ?
अभी भी शेष
इस द्वाभा की दिप्तिमयी चमक के भीतर से
तुम्हारा आनन्द
मेरी आत्मा को भर देता है ;
क्योंकि अभी सुना है मैंने
                        उत्कण्ठित हो :
कैसे भर गया है
सूरज के प्रकाश का
हर्ष से उन्मत्त कर देने वाला यौवन
             सुवर्णिम झंकारों से
अपनी स्वर्गिक बीन पर
बजाया है उसने गोधूलि का गीत ;
वाण-पंक्तियों और पहाड़ियों के आर-पार
             चहुँ ओर
             वह हुआ है अनुगुंजित
पर दूर, बहुत दूर
             जहाँ उपासक हैं
जहाँ लोग अब भी कर रहे हैं
             उसका स्तवन
             वहाँ से वह हो गया है
             अस्तमित ।