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सृजनक आधार / एस. मनोज
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जखन कतहुँ देखैत छी स्त्री
पेट उचकल
नहूँ-नहूँ जाइत
अपार पीड़ाक सहेजने
त' रोमांचित भ' जाइय मोन
श्रद्धानत भ' जाइय माथ।
श्रृष्टिक लेल, सृजनक लेल
कतेक सहैत अछि स्त्री।
कवि, कथाकार, चित्रकार
वा आन कियो रचनाकार
व्यक्तिगत पीड़ा सँ दूर
समाज आ भविष्यक आश समेटने
कतेक प्रक्रिया सँ
गुजरलाक बाद
करैत छथि सृजन।
सभ रचनाकार आ मादा
छथि सृजनक आधार।
एहने मौन साधक सँ
चलि रहल अछि श्रृष्टि
श्रृष्टि सुन्नर बनैबाक लेल
सबहक चाही व्यापक दृष्टि।