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सोरठ / शब्द प्रकाश / धरनीदास

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164.

कान्ह लीजै सुरति व्रज वाला।टेक।
दिन दिन छिन छिन दुखित दरस बिन, वन सम हम रमसाला॥
मास अषाढ़ भवो सुखि व्याकुल, बिनु गृह मदन-गोपाल॥
नर घर छावत पावस आत, हमहि जहर जनु चाला॥
सावन अति दुख पावन लागी, आव न सुनि नँदलाला।
जग जाने जलधर जल वरषे, मोहि अँगारते आला॥
भादो भामिनि भरमि परी है, जनु पंकज-वन पाला।
घटा घटा कहि सखिय पुकारै, बढ़ै अधिक विष ज्वाला॥
आश्विन आश निराश्या जीवनहिँ, द्रवहु दयाल कृपाल।
धरनी धनि अवलंब तिहारे, एक मनियाको माला॥1॥

165.

ऐसो गुरु मेरो संन्यासी।टेक।
देव-इन्द्र जोको नाम विराजै, अगम अगोचर वासी॥
जटा न जूट विभूति बधंवर, संख न चक्र गदासी।
तीरथ कारन डगर न डोलै, वरत न करत उपासी॥
माला सुमिरन पाउ न पूजा, दूजा गुन न सिखासी।
निशिदिन रहत सदा एक आसन, कबहुँ न होत उदासी॥
मेरे जान जबत गुरु सोई, दुख दामिनि सुखरासी।
धरनी कहै निगम है साखी, संतन हृदय निवासी॥2॥

166.

भक्तकि हांसी कवहि न आई।टेक।
सत युग त्रेता द्वापर कलियु, युग युग विरुद विडाई॥
नामदेव भक्ती व्रत लीनो, जँह तँह पुराई।
दास बीर जंजीर पहिरके, दृढ़ कै भकित दृढ़ाई॥
जयदेव प्रगट प्रतीति बढ़ाओ, गोरख अति गुरुआई।
सेम धना रविदास चतुर्भुज, सदन व मीरावाई॥
भक्त अनेक भये अरु होइहेँ, श्रीपति जिनहिँ सहाई।
धरनी मन वच क्रम मन मानो, संतन की शरनाई॥3॥

167.

विधिवत होत विमल विचार।टेक।
परम तत्त्व विस्तारि केशव, भूलिया संसार।
देह पायेआपदा भौ, धर्म सो कटवार।
बिनु विचार न छूटिया, कोउ कोटि करउ प्रकार॥
देव संत अनंत मुनि गन, वेद सो परधान।
कर्म नर शिर जो चढो है, सो बिना गुरु ज्ञान॥
आदि कुँअरि देत चौका, चूल्ह शेष झराय।
क्षिति कराही तेल सागर, सूर अग्नि वराय॥
एक मनियाँ ढूँढते, जरि जरि गये यम द्वार।
कहत धरनी गहत जो जन, सो उतरु भव पार॥4॥

168.

रे मन जन्म निष्फल जात।टेक।
आज करले काज अपनो, छोड़ि दे बहु बात॥
तुरुक हिन्दू भरम भूले, जोरि जोरि करोर।
अन्त जैहो छोड़ि जँह तँह, चढ़ि चले कठघोर।
काहु ले खनि गाड़ गाड़ो, काहु जराओ आगि।
दिवस चारि को संगती, मति भूलियो याही सांगि।
सोवत संसार सारा, जागता कोउ जानि।
जागते को काज सरिगो, सोवते को नाहि॥
वाको नाम अनंत कहि कहि, अंत काहु न पाय।
कहत धरनी धन्य सो जन, एक पर ठहराय॥5॥

169.

हरि-भक्ति करो मन भाय।टेक।
जाते जरा मरन भ्रम भागो, आवागमन नसाय॥
पाँच तत्व सँग जोरि समाजी, प्रेम पखावन छाय।
आछे भाव काछनी काछे, सुरति को ताल बजाय॥
प्रकृति पचीस पिरोय घूँघरु, पग पावट लटकाय।
नख शिख अंग मग्न होइ नाचो, जँह जरि संत अथाय॥
कमलासन अतुलित छबि छाजै, राजै त्रिभुवन राय।
धरनी तँह तन मन धन वारो, तजे कपट चतुराय॥6॥

170.

मैं तो अपने पियहिँ रिझाऊँगी।टेक।
हरषित हरिजन के आगे, हरिदासी कहलाऊँगी॥
प्रेम प्रीति को पहिरि चोलना, भूषन भेष बनाऊँगी।
परिहरि कुल मर्यादा लोक डर, नख शिख अंग नाचाऊँगी॥
त्रिगुण को ताल पखावज वीणा, बहुत विवेक बजाऊँगी॥
संगति आनी पाँच परानी, साधुकि बानी गाऊँगी॥
घरि घरि पल पल निशि वासर, अरुचरन कमल चित लाऊँगी।
धरनी धनि ऐसो बनि आई, अब कहुँ जाँन आऊँगी॥7॥