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स्वप्न-1 / पीयूष दईया

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"मुझे नहीं मालूम कि मेरा स्वप्न सोचता क्या है" -- फ्रिदा काहलो

उसके चुम्बकीय खिंचाव से अवश जब मैं उस क़िताब के पन्ने उलटता-पलटता हूँ तब यह उलटना-पलटना उस क़िताब में होता है, उसे उलटने-पलटने वाले मुझ में नहीं। ऐसा धोखा होता है कि व्यक्ति बदल जा सकता है पर क़िताब नहीं।

यूँ स्वयं इस क़िताब का भेद जिसे पता था, वह मैत्री में था। मैं उसके कमरे में जाने से डरता था।

उसके कमरे में होने का मतलब इस अनुभूति के आतंक का सामना करने जैसा था मानो वहाँ हर रोज कोई ख़ुदकुशी करता हो और वहाँ दाख़िल होने के बाद इस अनुभूति से परे चले जाने की कोशिश करने या इससे मुक्त होने का ख़याल मात्र स्वयं अपने ही गले में फंदा डाल लेना।

सो मैं डरता रहा, उसके कमरे में जाने से।

आप कह सकते हैं कि मुझ तक उसकी मैत्री के आने के इस इंतज़ार में कि जब मेरे नाख़ून उसकी आवाज़ के अदृश्य धागों से लम्बे होने लगेंगे तो मैं उन्हें यूँ काट लूंगा जैसे कि एक आदिवासी लकड़ी काटता है, अपना घर बनाने के लिए।

और ऐसे उसके कमरे में जाए बगैर मैं न केवल क़िताब का भेद पा लूंगा बल्कि मैत्री का भी।

यह मेरा स्वप्न है, दरअसल।