भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

हँसे कान फिर हो हो हो / दिविक रमेश

Kavita Kosh से
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 12:39, 9 जुलाई 2015 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार= |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCatKavita}} {{KKCatBaalKavita}} <p...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

हमें सुनाओ, हमें सुनाओ
बोले कान मचल कर।
मज़ेदार सी बात सुनाओ
बोले उचक उचक कर।

कहा हाथ से ज़रा पास में
आकर मदद करो तो।
जरा ध्यान से सुन लें हम भी
भैया मदद करो तो।

एक चुटकला जब चेरी ने
उनको अजी सुनाया
हँस हँस कर कानों ने भॆया
पूरा होश गँवाया।

हँसे कान तो हँसा पेट भी
साथ हँसी तब आँखें।
हाथों ने भी हँसते-हँसते
फैलायी ज्यों पाँखें।

चैरू हँसी हँसी फिर डोलू
हँसी विधू भी हो हो।
देख सभी को हँसते इतना
हँसे कान फिर हो हो।

नॉटी कितनी हँसी भी होती
सबने यह पहचाना।
जितना रोको उतनी आती
हँसते हँसते जाना।