हज़ार टुकड़े हों मगर चलो किसी तरह से भी / मधुभूषण शर्मा 'मधुर'
हज़ार टुकडे हों मगर
चलो किसी तरह से भी ,
जुड़ा रहे ये अपना घर
चलो किसी तरह से भी !
जो मुख़्तलिफ़ से लोग हैं
जो मुख़्तलिफ़ ख़्याल हैं ,
तो बहस कर लो मुख़्तसर
चलो किसी तरह से भी !
ये ख़ून ख़ौलता रहे
बहे रगों में सच मगर ,
बनें रहें ये हमसफ़र
चलो किसी तरह से भी !
सिले रहे थे होंठ तो
हिले ये सर ज़रूर थे ,
कि कुछ तो कह गई नज़र
चलो किसी तरह से भी !
ये सोचती है ज़िन्दगी
कि क्या करूं ज़मीर का ,
ये पेट तो लिया है भर
चलो किसी तरह से भी !
थे दिन में टूटे ख़्वाब जो
जुड़े वो ऐसे नींद में ,
कि रात हो गई बसर
चलो किसी तरह से भी !