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हम तो आशिक है बारिश के कब से शीश मुड़ाकर बैठे / विनय कुमार

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हम तो आशिक है बारिश के कब से शीश मुड़ाकर बैठे।

पूछो मेघों के स्वामी से ओले कहाँ छुपाकर बैठे।

गिद्धों ने संन्यास बेचकर ज़हर बुझे बघनखे खरीदे और विक्रमादित्य प्लेट में अपनी प्रजा सजाकर बैठे।

सूरज की छतरी के नीचे गरम तवा पर बैठा हूँ मैं देखें किस दीवाने में दम है जो मुझे उठाकर बैठे।

बस सकती हैं चौपालें फिर लेकिन पहल करे तो कोई अरसे से ठंडे अलाव को कोई तो सुलगाकर बैठे।

तुम भी देखो, हम भी देखें गिरे हुए सूखे पत्तों को तुम भी शाख़ हिलाकर बैठे, हम भी शाख़ हिलाकर बैठे।

फिर मैली होगी फिर कुढ़कर धोएँगे गाढ़े आँसू से ओसारे में फिर दादाजी दिल की दरी बिछाकर बैठे।

लाख ढूँढ़िए नहीं मिलेंगे गुज़री हुई सदी के मुजरिम नयी सदी के जलसाघर में चेहरे नए लगाकर बैठे।

अजब देश है, अजब समय है ख़बर पहेली-सी लगती है मंत्री जी ने होम किया था, अफ़सर हाथ जलाकर बैठे।