भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

हमरा चैता के मार से बचा ले सजन / जयराम सिंह

Kavita Kosh से
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 11:04, 12 अप्रैल 2018 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=जयराम सिंह |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCatMag...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

हमरा चैता के मार से बचा ले सजन।
हवा छेड़खानी करऽ हे उधारे बदन॥

(1)
मनवां घायल हो गेल फूल के बान से
दर्द से उबरै के की करूं अब जतन॥

(2)
खेत में जौ, गेहूँ, तीसी, मसुरी चना।
सबके सब गदरा गेल, खेल खेलवै पवन॥

(3)
फूल के साथ भौंरा, करे अठखेली।
गंध से तर-बतर घर डगर हर चमन॥

(4)
आम के बौर मानो बनल मौर है
पेन्ह के शादी करतै रति से मदन॥

(5)
दिन में शांति न हे, रात में छटपटी,
चहुदिशि रहिया निहारे हरिन के नयन॥

(6)
आगे पीछे बढ़ल कच कमर तक बढ़ल,
भार हमरा से एते न होतो सहन॥

(7)
बिन दोंगा के न, साजन से होतै मिलन,
छौड़ा पुता कौन पाँड़े, ऐसन चलैलक चलन॥

(8)
दोंगा के ठेउक ठुकरा दा, तूंहऽ पढ़ल,
तोहरा किरिया हम्मर जो न´् दा दरसन॥