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हमारी आंखें लुप्त हो रही हैं / रवि कुमार

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हम एक अंधेरी खान में जी रहे हैं

हम कई घंटों तक
रोजी-रोटी की आपाधापी में रहते हैं
सोते हैं कई घंटे
बाकी समय में
खु़द को उलझाए रखने के लिए
हमने कई साज़ोसामान जुटाए हुए हैं

हम उलझे रहते हैं
हम इतना व्यस्त रहते हैं कि
खान के मुहानों के बारे में सोचने की
हमें फ़ुर्सत नहीं रहती
और ना ही खान के मुहाने टटोलने लायक
उर्जा ही हममें शेष बचती

हम अंधेरे को ही
अपनी नियति समझने लगे हैं
और खोजते रहते हैं शास्त्रों में
अंधेरे की सनातनता

हम कोशिश करते हैं कि
हम रोशनी के मायने भी भूल जाएं
दरअसल
अंधेरा हमारे अन्दर
इतना गहरा पैठ गया है
कि हम जुगनुओं से भी भय खाते हैं
जरा भी रोशनी हमें बर्दाश्त नहीं होती

अंधेरा हमारे जीवन की
अनिवार्यता होता जा रहा है
हम खु़द-ब-खु़द
अंधेरा होते जा रहे हैं

चूंकि अंधेरे में
इनकी कोई आवश्यकता नहीं होती
हमारी आंखें
लुप्त हो रही हैं धीरे-धीरे