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हर जानिब हैं / मजीद 'अमज़द'

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हर जानिब हैं दिलों ज़मीरों में काले तूफ़ानों वाले लफ़्ज़ हज़ारों घनी भवों के नीचे
घात में
अब तो मेरे लबों तक आ भी हर्फ़-ए-ज़िंदा
हर जानिब गलियों के दलदली तालाबों में बे-सतर हिरासाँ खड़ी हैं रूहें
क़दम ख़ुबे हैं नीले कीचड़ में और उन की डूबती नज़रों में इक बार ज़रा तैरी थी उन ज़िंदगी
अभी अभी इक पल को
और अब फिर काले तूफ़ाँ वाले लफ़्ज़ उन के लिए जाने क्या क्या संदेसे लाए हैं
उन को ज़िंदा रखियो हर्फ़-ए-ज़िंदा

मुद्दतों से बे-याद है तू मेरे निस्यानों में ऐ हर्फ़ ज़िंदा
अब तू मेरे लबों पर आ भी
अब जब मेरे देखते देखते काले तूफ़ाँ वाले लफ़्ज़ों का आबी फ़र्श
इक
बिछ बिछ गया है दूर उफ़ुक़ के पीछे कहीं इन पानियों तक जिन पर इक नाख़ुदा पैग़म्बर की दुआओं
के बजरे तैरे थे
मेरे निस्यानों में जहनदा हर्फ़-ए-ज़िंदा
तेरे मानों में मवाज हैं वो सब इल्म जो रूहों को खेते हैं उस इक घाट की सम्त
जहाँ उम्मीद और ख़ौफ़ के डंडे मिल जाते हैं
अब तो सारी दुनिया में से जिस इक शख़्स को डूबना है वो मैं हूँ
अब तो सारी दुनिया में वो शख़्स जो तैर के बच निकलेगा मैं हूँ