हर रोज़ ही करते हैं काग़ज़ पर ये फ़न ज़िन्दा / जावेद क़मर
हर रोज़ ही करते हैं काग़ज़ पर ये फ़न ज़िंदा
हम अहल-ए-सुख़न हैं हम रखते हैं सुख़न ज़िंदा
जो हार गए हिम्मत रस्ते में पड़े हैं वो
पहुँचे वह ही मंज़िल पर थी जिन में लगन ज़िंदा
मुर्दा नहीं कहते हैं शैदा-ए-मोहब्बत को
ज़िंदा हैं वह ज़िंदा हैं वह ज़ेर-ए-कफ़न ज़िंदा
ख़ुशबू की तवक़्क़ो है बे-कार ही बाग़ों से
बाग़ों में नहीं मिलते वह सर्व समन ज़िंदा
एहसास-ए-मसर्रत को हम मरने नहीं देते
उम्मीद की रखती है हम को तो किरन ज़िंदा
सय्याद बता किस पर अब ज़ुल्म तू ढाएगा
छोड़े ही कहाँ तू ने मुर्ग़ान-ए-चमन ज़िंदा
ये किस ने कहा अपनी तारीख़ से ग़ाफ़िल हैं
ज़ेहनों में हमारे है रूदाद-ए-कुहन ज़िंदा
जो जान लुटाते हैं सरहद की हिफ़ाज़त में
ऐसे ही जवानों से रहता है वतन ज़िंदा
दौलत का पुजारी था दौलत के लिए देखो
शो' लों के हवाले की ज़ालिम ने दुल्हन ज़िंदा
जब सैर-ए-बहाराँ को आता है 'क़मर' कोई
इक नीम तबस्सुम से होता है चमन ज़िंदा