भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

हल्का-हल्का-गहरा-गहरा-गाढ़ा-गाढ़ा उतरा है / दीपक शर्मा 'दीप'

Kavita Kosh से
द्विजेन्द्र द्विज (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 19:57, 18 सितम्बर 2016 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

 
हल्का- हल्का, गहरा- गहरा, गाढ़ा- गाढ़ा उतरा है
चाँद हथेली पर उतरा तो पारा-पारा उतरा है
 
सोच रहे थे आखिर ऐसा नूर बला का किसका है
भीड़ छँटी तो पाया हमने यार हमारा उतरा है
 
पर्वत- पर्वत, मैदाँ- मैदाँ, जंगल- जंगल से होकर
मीठा- मीठा जब आया तो खारा- खारा उतरा है
 
बरसों बाद पुराने- टेसन की बत्ती फिर जल उट्ठी
गाँव- गाँव में ढोल बजे हैं आज दुलारा उतरा है
 
नई- नवेली दुल्हन आई बड़कू के घर, देखन को
भीड़ देखकर लगता है कि टोला सारा उतरा है
 
आँखें जल्दी मूंदों सखियों और मुरादें माँगों भी
उधर देखिये!आमसान से, टूटा तारा उतरा है I
 
छाप-छूप कर मेरे अपने शे'र, मुझी से बोला वो
देखो-देखो 'दीप' इधर तो कितना प्यारा उतरा है