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हल्ला / सुखचैन / अनिल जनविजय

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(एक)

जब हल्ला शुरू होता है
तो चूल्हे में बलती रह जाती है आग
तवे पर जलती रह जाती है रोटी
खुली की खुली रह जाती है बच्चों की किताब

माँ ममता समेत दौड़ जाती है बच्चों को रोता छोड़कर
बच्चे की आँख से आँसू पोंछने का
किसके पास वक़्त होता है
मेज़ पर अधपढ़ी रह जाती है किताब

और तुम पीछे छोड़ आते हो
गलियों में बिखरने के लिए
छाती के साथ लगाकर रखे हुए ख़त ।

(दो)

जब हल्ला शुरू होता है तो कितना कुछ खो जाता है
तुम्हारा प्यारा छोटा सा घर, तुम्हारी बीवी,
फ़र्नीचर, किताबें, तुतलाता बच्चा,
वह सब कुछ जिसे तुम प्यार करते हो

कमरे में लट-लट जलती चिता सिसकती है
और जाने वाली की रूह चलती रहती है
कभी तुम्हारे अन्दर, कभी तुम्हारे बाहर
तुम्हारे बच्चे की जुराबें, खिलौने, बांसुरी,
जाने वाली की सुर्खी, सूट और साज-ओ-सामान,
सूने घर में ख़ाली डिब्बे, बिलखतीं हवाएँ,
तूफ़ानों में खटखटाते दरवाज़े
तुम्हें उन रिश्तों तक ले जाते हैं
जो है नहीं, पर होते थे

वे रिश्ते वह सबकुछ याद दिलाते हैं
जिसे तुम भूलना चाहते हो
तुम्हारा समूचा आपा प्रेतात्मा की तरह भटकता है
उस सबकुछ के दरमियान
जिसे तुम साथ ले आते हो
उस सब कुछ के दरमियान
जिसे तुम पीछे छोड़ आते हो ।

(तीन)

तुम उन्हें चुपचाप पीछे छोड़ आते हो
कच्चे रास्ते, दोस्त, घोंसले, पक्षी, मदरसा
कच्चे रास्ते की मिट्टी में गहरे दब जाते हैं
तुम्हारे कदमों के निशान

तुम्हारी दादी के कान नहीं रहे
जिनमें रचमिच गए थे तुम्हारे बोल
उड़ जाते हैं जाड़े के गुनगुने दिन और पतँग
और तुम उन्हें चुपचाप छोड़ आते हो

कच्चे घरों के दालान और पोखर में डोलता चान्द,
वट वृक्ष के नीचे धूनी सेंकते लँगोटिया यार,
ठण्डी जाड़े की रातों में टक-टक करते रहटों के कुत्ते,
दादी की गुनगुनी गोद

जब शाम को परछाइयाँ लम्बी होकर
दूर तक फैल जाती हैं
तुम्हें याद आता है
तुम्हारा तुतलाता बच्चा
वह प्यारी जान पता नहीं कैसी हो

और वह औरत जो तुम्हारी ज़िन्दगी में से
चले जाने के बावजूद
हमेशा हाज़िर रहती है
आसमान पर बनती-बिगड़ती शक्लों में
लम्बी ढल रही परछाइयों में
और तुम उन्हें चुपचाप छोड़ आते हो !