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हसरत-ए-दीदार / आशा कुमार रस्तोगी

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इश्क़ को जब से हमने दिल में बसाया "आशा" ,
दाग़ तो मुफ़्त मेँ, जागीर मेँ सहरा पाया।

क्या हुआ मुझको, यही बात पूछते हैं सब,
दिल तो नादाँ था, ज़हन को भी उसने भरमाया।

समझ आया नहीं, क्या खोया हमने क्या पाया,
जब भी ढूँढा उन्हें, दिल के क़रीब ही पाया।

इक हसीँ ख़्वाब मेँ तस्वीर जो उभरी उनकी,
जैसे वह थे, उन्हें वैसा फ़क़त हम ने पाया।

फिर से मिलने का वह वादा जो कर गए हमसे,
बस इसी बात पर हमको बहुत रोना आया।

या ख़ुदा तेरी रहमतें भी चुक गई हैं क्या,
मेरी इक"हसरत-ए-दीदार" भी बेजा है क्या...!