भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

हाइकु -4 / विभा रानी श्रीवास्तव

Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 12:40, 24 अक्टूबर 2019 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=विभा रानी श्रीवास्तव |अनुवादक= |स...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

हँसती बूंदें
बूढी छतरी देख
आस तोड़ती ।

सर्पीली राहें
रंग रोशन छटा
इन्द्रधनुषी ।

बीज लड़ता
भूमि-गर्भ अँधेरा
वल्लरी देता ।

झर से झरे
मुट्ठी भर जिन्दगी
रेत सी रिसे ।

पीली चुनर
दुल्हन बनी धरा
हल्दी रस्म में ।

चनिया चोली
भू धारे सतरंगी
रचे रंगोली ।

लौटते पात
दिगंबर तरु के-
प्रवासी पूत ।

जीव का रोला
कलासी खिली वल्ली
पंक में पद्म ।

दौड़ लगाता
धावक तन्हा क्षेत्र
रक्तिम लिली।

ढूँढे ले डोरी
झांके द्वार देहरी-
व्यग्र बहना।