भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

हे गंगा माई मोहे बांझ बनइह / प्रमोद कुमार तिवारी

Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 17:40, 8 जुलाई 2014 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

हे गंगा माई मोहे बांझ बनइह
गोड़ पकड़ के रोईं बिटिया न दीह....

लड़िकन के आगे रही टुअरी ए माई
सूखले ऊ रोटी घोंटी दूध खायी भाई
बिटिया देवे से पहिले मोहे बाउर बनइह...

कइसे अपने बबूनी के दूध में डुबाइब
हम भला कइसे जियब जहर चटाई
एक वर माई मांगे, तू ही मार दीह...

जग के अजब रीति मोहे ना सोहाला
लछमी आ देवी कहत तनिक ना लजाला
ए विदमानन के बुद्धि ज्ञान दीह...
गोड़ पकड़ के रोईं...