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हैरतों के सिल-सिले / अहमद नदीम क़ासमी

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हैरतों के सिल-सिले सोज़-ए-निहां तक आ गए
हम तो दिल तक चाहते थे तुम तो जाँ तक आ गए

ज़ुल्फ़ में ख़ुश्बू न थी या रंग आरिज़ में न था
आप किस की जुस्तजू में गुलिस्तां तक आ गए

ख़ुद तुम्हें चाक-ए-गिरेबां का शऊर आ जाएगा
तुम वहां तक आ तो जाओ हम जहां तक आ गए

उन की पलकों पे सितारे अपने होंठों पे हंसी
कि़स्सा-ए-ग़म कहते कहते हम यहां तक आ गए