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होंठों तक आया कई बार / कुमार शिव

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होंठों तक आया कई बार
वाणी तक पहुँच नहीं पाया
वो हुआ कभी भी नहीं व्यक्त !

मेरे मन में जितना कुछ था
वह बिना सुने ही चला गया
अब घिरा बैंगनी सन्नाटा
चुप्पी ने पाया अर्थ नया

यादें पीली हैं बेशुमार
अँजुरी में समा नहीं पाया
सूखी रेती-सा झरा वक़्त ।
 
पीड़ा बिछोह की महक रही
दुख के पत्ते हो रहे हरे
मौसम के कुछ नीले निशान
नदिया के होंठों पर उभरे

आवेगयुक्त वो आलिंगन
उन्मीलित पलकें सीपों-सी
नस-नस में उबला हुआ रक्त ।