भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

ह‍इआ हो... / भागवतशरण झा 'अनिमेष'

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 11:28, 22 फ़रवरी 2011 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=भागवतशरण झा 'अनिमेष' |संग्रह= }} {{KKCatNavgeet}} <Poem> धार के व…)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

धार के विपरीत चलो अब
ह‍इआ हो, ह‍इया हो

बिना चले मत हाथ मलो अब
ह‍इआ हो, ह‍इया हो

फ़ौलादी साँचे में ढलो अब
ह‍इआ हो, ह‍इया हो

दले जो तुमको उसे दलो अब
ह‍इआ हो, ह‍इया हो

कभी न पहुँचेगी किनारे तक
तेरे मन की न‍इया हो

हाथ पे हाथ धरे क्यों बैठे
न‍इया पार लग‍इया हो ।