भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

‘अस्ल मुहब्बत : भाग 2’ / जंगवीर स‍िंंह 'राकेश'

Kavita Kosh से
Jangveer Singh (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 13:09, 4 अक्टूबर 2018 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

तुमने कहा मुझे, वक़्त चाहिए
तुम्हारा दिन-रात-एक-एक पल चाहिए
और मुझे चाहिए थी सिर्फ़-ओ-सिर्फ़ !
तुम्हारे लबों पे बिखरी इक मुस्कान !

पैसा, वक़्त, शोहरत, दोस्त. . .!
क्या-क्या नहीं था तब हमारे पास

तुम्हें पता है लोग अक्सर
हमारी बातें किया करते थे
हर जगह !!

लड़के - लड़कियाँ, दोस्त - दुश्मन,
सब जानते थे कि 'दो नाम' इश्क़ के,
नाम पर जिंदा हैं 'यहाँ भी!'

लेकिन तुम खुद को,,,,,
ये मानने ही नही देती थी
कि ये! हमारी मुहब्बत थी

नादान! बड़ी नासमझ निकली तुम
हाँ ! यही 'अस्ल मुहब्बत' थी॥॥॥