भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
अंजुली भर किरण मैंने बस माँगी थी / अमरेन्द्र
Kavita Kosh से
अंजुली भर किरण मैंने बस माँगी थी
तुमने आँगन मेरा भर दिया प्यार से।
अब तो दुनिया ये लगती है इक दीप-सी
सुख के मोती लिए सौ, हुई सीप-सी
तुमने मुरली को क्या छू दिया हाथ से
सूखी यमुना उफनती है रस-धार से।
मेरी आँखंे थीं चंचल लहर की तरह
पेड़ से लटके पन्नी के घर की तरह
अब से आँखें अजन्ता-गुफा बन गईं
बस गई तुम जो मूरत के आकार से।
मेरी साँसों की लय ये सुगन्धित हुई
उम्र किसके अराधन में अर्पित हुई
कौन बेली, चमेली, जुही की सुगन्ध
भर गई मेरे आँगन में सहकार से।
तुमने छूके मुझे ऐसा अनुभव दिया
एक पत्थर था, पल में ही पारस किया
शूल-से जो चुभे थे पहर, कल तलक
ये दिवस-रात लगते हैं कचनार-से।