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अद्भुत कला / अमरजीत कौंके

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मैं जिन्हें
वर्षों तक
दूध पिलाता रहा
अंगुली पकड़ कर
चलना सिखाता रहा
जब वे मेरी पीठ पर
डंक मार रहे थे
तब मुझे पता चला
कि साँप कभी किसी के
मित्रा नहीं होते

लेकिन जब वे
मेरी पीठ पर
डंक मार रहे थे
और मेरे अंगों को
ज़हर से भर रहे थे
तब वे भी नहीं जानते थे
कि मैं
बचपन से ही
यह ज़हर पी-पी कर
पला बढ़ा हूँ

और मुझे
साँपों के सिर कुचलने की
और ज़हर को
ऊर्जा में बदलने की
अद्वभुत कला आती है ।


मूल पंजाबी से हिंदी में रूपांतर : स्वयं कवि द्वारा