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अन्धकार - 1 / बसन्तजीत सिंह हरचंद

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अन्धकार है
अन्धकार है
अन्धकार व्योमाकार है .

झोंपड़ों के ,छप्परों के ,
अधगिरे कच्चे घरों के ,
खुले द्वारों से ---- दरारों से ,
निकल आते देखकर इस अन्धकार को
अंधकारमय जबड़ों के सुरसाकार को ,
दिनकर ने की बंद सहम कर आँखें ;
दिन ने भीत समेटी अपनी पांखें .

नील गगन का उज्ज्वल मुख - उजियाला ,
पड़ता ही जाता है काला - काला ;
बुझते - बुझते बुझा सकल ब्रह्मांड ,
पृथिवी पर चलता- फिरता हर पिंड .

गलियों में, सडकों पर ,चलते चौराहों पर ,
खुलीं - संकरी ,लम्बी - चौड़ी सौ राहों पर ,
निज दल- बल ले घिर आया घन अन्धकार है ;
अन्धकार के नभ के नीचे अन्धकार है .

जहां दैन्य के खलदूतों ने -----
अनपढ़ता की तप्त नोक से
फोड़ - फाड़ डाली हैं आँखें कुछ जीवों की ,
हीन - भावना की कटार से
काट लगाई ऊंची ढेरी कुछ जीभों की  ;
कुछ दुर्बलताकुल हृदयों को
दहक रही चित - चिंताओं में झोंक दिया है ,
कुछ अंजर - पंजर उदरों में
क्षुब्ध क्षुधा को बर्बरता से भोंक दिया है ;
लौह विवशताओं से कुछ को
जकड़ कंटकित कटु पीड़ाओं पर फेंका है ,
बेकारी की तेज़ धार से
हाथ काट डाले हैं कुछ के . क्या देखा है ?

घोर यातनाओं को सहते इस रौरव में
पड़े हुए सदियों से सड़ते कंकालों को ,
किन जन्मों के अपराधों का दंड मिला है ?
है कोई जो मुक्त करे श्रापों से इनको ?

उच्च हिमालय की चोटी गौरीशंकर से लेकर
निगल चुका तम चरणों में सोई सोने की लंका ;
अन्धकार के मरघटमय इस सन्नाटे के उर में
फणि फैला विक्षुब्ध उठ रही कोई आकुल शंका .

महादैन्य के अत्याचारों के हो विकल विरुद्ध ,
क्षीण अहिंसा की लाठी से कब तक होगा युद्ध ?
गीता का ले वज्र हाथ में उठना होगा ,
भारत हे ! ले सिंह साहस अब जुटना होगा .

देश के ओंठों पर
मौन को बाँधकर ,
विध्वंसक षड्यंत्र
अन्धकार को ओढ़ घूम फिरते हैं .

चारों ओर अँधेरे का पहरा है
सूरज ! कैसे बढ़ पाओगे ?
अगर उदित होना है तो जनता के
उर में से ही चढ़ पाओगे ;
क्या तुम खोज रहे चलने को राहें
राहों को तेरे पीछे चलना है ,
औरों का पथ आलोकित करने को
स्वयम तुझे तिल - तिल करके जलना है .

लेकिन इक कष्ट है , क्लेश है ,
सचमुच सविशेष है,
कि सूरज के उर में भी
कर चुका अंधियारा
गहरे प्रवेश है ..
विध्वंसक षड्यंत्र ,

अन्धकार को ओढ़ घूम फिरते हैं .

(अग्निजा ,१९७८)