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आकाश के कैनवस पर / दिविक रमेश
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आकाश के कैनवस पर
कोई चितेरा
जब आँकता है बादलों को
तुम इसीलिए रूठी हो न
कि तुमसे प्यार लेकर भी
मैंने कोई प्रेम कविता नहीं लिखी?
पर कैसे लिखूँ
जिसे मैं बांधता हूँ बाहों में
जिसे मैं आंजता हूँ आँखों में
जिसे मैं रचता हूँ रोम-रोम में
जिसे मैं पीता हूँ होठों में
कैसे बांधूँ उसे
महज कुछ शब्दों में?
और कविता
क्या सचमुच शब्द होती है?
जिस भाषा में
मिलते हैं हम-तुम
क्या कविता
उसी की
अक्षम तलाश नहीं है?
जिसे बांध नहीं पाती
ख़ुद
क्या कविता
उसी ओर
ले जाने वाली
नदी नहीं है?