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आज / यतीश कुमार
Kavita Kosh से
वक़्त ने अपनी शक्ल छुपा दी
और घड़ी ने अपने हाथ
बर्फ़ पिघलने और
नदी जमने लगी है
पगडंडियाँ हो रही हैं विलुप्त
और रास्ते लगें हैं फैलने
केंचुओं ने छोड़ दिया है
मिट्टी का साथ
और मिट्टी ने किसानों का
बारिश ने ही
चुरा लिया है
मिट्टी से सोंधापन
गुलाब के काँटे
अब चुभते नहीं
आघात करते हैं
कमल अब सूरज को देख नहीं खिलता
छुइमुई ने भी शर्माना छोड़ दिया है
और दीमक
दीमक अब लोहे को भी चाट जाता है
नेवला बिल में घुस गया है
साँप बिल में अब नहीं रहता
शहर में घुस आया है
सियार अब आसमान ताके
आवाज़ नहीं लगाता
मुँह झुकाए रिरियाता है।
और इंसान ???
इंसान ने इन सबकी शक्ल चुरा ली है