राग घूरिया मलार, कहरवा 25.7.1974
आजु कछु अद्भुत भाव भयो री!
गगन छये बदरा लखि सखियन जुरि-मिलि ऐसो मतो कियो री!
आयो सावन सोहनो, रिमझिम बरसहि मेह।
चलहु झुलावहिं जुगलवर, उमँगहिं अमित सनेह॥
आईं स्वामिनि पास सबन मिलि अपनो आसय प्रगट कियो री!॥1॥
विहँसि जुगल अनुमति दई, चलीं सखी लै संग।
नव निकुंज में आय पुनि भयो नयो ही ढंग॥
जुगल रसिक की अनुमति लै सखि! उलट-पुलट सिंगार कियो री!॥2॥
भये स्याम स्यामा सखी, प्यारी गौर गोपाल।
उर उमग्यौ रति-रस अमित, जाकी बाँकी चाल॥
कनक हिंडोले चढ़े जुगल को नयो रूप लखि रस उनयो री!॥3॥
दायें गौर-गोपालजू, स्यामा स्यामा बाम।
मृदु-मृदु मुसकहिं परस्पर छकि-छकि छवि अभिराम॥
निरखि निरखि सो छवि सखियन के हिय उमँग्यौ कछु नेह नयो री!॥4॥
उमँगि झुलावहिं जुगलवर, गावहिं गीत मलार।
सो सुखमा वारिधर, बरसहिं मन्द फुहार॥
देखि-देखि रस-केलि जुगल की मन्मथ को मन मथित भयो री!॥5॥
कहाँ कहें, रसराज की रति-गति अति ही गूढ़।
मुनिजन हूँ की मति भ्रमत, समुझि सकहिं का मूढ़॥
चिद्रस के जे रसिक तिनहिंको यामें कछु अधिकार गिन्यौ री!॥6॥