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आठ साल पहले का एक दिन / सुशील कुमार झा / जीवनानंद दास

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काली अँधेरी रात थी फाल्गुन की
पंचमी का चाँद भी डूब चुका था तब,
मरना तो उसे था ही,
सुना है
कल रात पोस्टमॉर्टेम के लिए ले गये उसे।

पास ही लेटी थी पत्नी और बच्चा भी था,
बिखरी थी चाँदनी चारों ओर, और था प्रेम, और थी आशा,
फिर भी ना जाने क्यों आया था नजर उसे एक भूत?
खुल गई थी आँखें उसकी या फिर बरसों से सोया ही नहीं था वह,
सोया हुआ है जो अब भयावह शवगृह के इस सुनसान अंधकार में।

क्या ऐसी ही नींद चाहा था उसने?
अँधेरे नम बसबसाते कमरे में सोया पड़ा है आज,
प्लेग से रक्तरंजित ढलके गरदन वाले चूहे जैसा,
कभी नहीं जागने के लिए।

“कभी उठोगे नहीं क्या
ज़िंदगी का असह्य भार और वेदना
और नहीं झेलोगे क्या?”
उसकी खिड़की से झाँक कर निःस्तब्धता ने
पूछा था, जब
चाँद भी हो चुका था विलीन उस जटिल अन्धकार में।

उल्लू तो सोने की तैयारियों में लग चुका था,
गली में टर्राता मेढ़क मगर मांग रहा था दो मुहूर्त और,
सुबह की लाली दस्तक देने जा रही थी उसी अनुराग से,
और मैं झेल रहा था चारों ओर से मसहरी का क्षमाहीन विरोध,
जो दिख ही नहीं रहा था इस धुंधले निरुद्देश्य अंधकार में,
मच्छर लेकिन तब भी जाग रहा था जीवन स्रोत की चाह में।

आकाश घनिष्ठ हो उठा और भी, मानो कोई एक विकीर्ण जीवन
नचा रहा हो उँगलियों पर उसके मन को,
दूर किसी बच्चे के हाथों में फंस कर मौत से लड़ते झींगुर का क्रंदन,
चाँद भी डूब गया,
और इस विचित्र अंधियारे में, तुम,
हाथों में पाश लिए खड़ी हो, एकाकी, उसी पीपल तले,
जानती हुई भी कि झींगुर, पक्षी और मानव एक नहीं हैं।

पीपल की शाखों ने किया नहीं विरोध?
हरे नर्म झूमते पत्तों से झाँककर किया नहीं प्रतिकार जुगनूओं ने?
गंध के सहारे ही ढूंढ कर पूछा नहीं था उल्लुओं ने – “बूढ़ा चाँद
तो बह गया बाढ़ में, चलो एक-दो चूहे ही पकड़ें”?
चीख कर बताया तो नहीं था उसी ने ये दर्दनाक खबर?

जीवन का ये आस्वाद,
पतझड़ की किसी शाम में महकता जौ,
सह नहीं सके ना?
अब इस शवगृह में आराम से तो हो?
इस शवगृह के दमघोंटू अन्धकार में
रक्तरंजित होंठ और चपटे माथे वाले किसी चूहे की तरह।

सुनो,
मृत्यु की कहानी फिर भी,
व्यर्थ नहीं जाता कभी किसी नारी का प्रणय और
विवाहित जीवन की साध,
समय के साथ आती है पत्नी और
फिर मधुबर्षा,
कभी कांपा नहीं जो शीत और भूख की वेदना से,
आज लेटा है
इस शवगृह में,
चित किसी टेबल पर

जानता हूँ,
हाँ, मैं जानता हूँ,
नारी मन में,
प्रेम, वात्सल्य, घर, नव परिधान,
अर्थ, कीर्ति, और आराम ही सब कुछ नहीं है,
इससे अलग भी कुछ है,
जो हमारे अंदर खेलता है,
और कर देता है हमें
क्लांत,
और क्लांत,
और भी क्लांत।

आज इस शवगृह में नहीं है वो क्लांति,
तभी तो आज लेटा है वह चित किसी टेबल पर यहाँ।

फिर भी रोज रात देखता हूँ मैं,
एक बूढ़ा उल्लू बैठता है पीपल की डालों पर,
पलकें झपकाता है और कहता है – “चाँद तो लगता है बह गया बाढ़ में,
अच्छा है,
चलो पकड़ें एकाध चूहे को ही”।

वो बूढ़ी नानी, आज भी वैसी ही है,
मैं भी हो जाऊंगा एक दिन उसकी तरह,
डूबा दूँगा इस बूढ़े चाँद को तब किसी चक्रवात में।

और फिर चलें जायेंगे हम दोनों,
शून्य कर
इस प्रिय संसार को।