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आदमी को कहाँ ख़ुद की पहचान है / देवी नांगरानी

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आदमी को कहाँ ख़ुद की पहचान है
अपने फन से, हुनर से भी अनजान है

बन न पाया है वो एक इन्सान तक
आदमी हैं कहाँ वो तो शैतान है

वो जो इन्सान था इक फरिश्ता बना
आदमीयत का अब वह निगहबान है

अपने मुँह का निवाला मुझे दे दिया
वो ख़ुदा है, ग़रीबों का रहमान है

लड़खड़ा कर उठा, गिर गया, फिर उठा
हाँ यहीं आगे बढ़ने की पहचान है

जाँ की परवाह न की, सरहदों पर लड़ा
देश की आन से बढ़के क्या जान है ?

पेट पर लात ‘देवी’ न मारो कभी
छीनता है जो रोटी वो शैतान है