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आदमी से आदमी तक / कौशल किशोर
Kavita Kosh से
मैंने आदमी बनने की कोशिश की
वह झूठी हो सकती है
वह सही हो सकती है
पर मैंने तो कोशिश की
पर उन्होंने क्या किया
क्या किया मेरे साथ सलूक?
मेरे हाथों में पहना दी गई
लोहे की मज़बूत हथकड़ियाँ
पैरों में बाँधकर जंजीरें
मुझे दौड़ाया गया
विचारों के जंगल में
आंखों पर बाँधकर आश्वासनों की पट्टी
तौला गया मेरी यातनाओं को
किसी पुराने बटखरे से
मेरी पीठ को बना दिया गया
विज्ञापन-प्रचार का सस्ता-सा माध्यम
जिस पर चिपका दिए गये
सिनेमा, सर्कस, बाजार, सभा...
के रंग-बिरंगे पोस्टर
और मेरी कविता को पुराने आदर्शों
धारणाओं, परम्पराओं से जोड़ने की कोशिश की गई
जिनके केचुल छोड़ निकल आया हूँ बाहर
यह होता आया है मेरे साथ
यह होता रहा है मेरे साथ
आखिर कब तक
यह होता रहेगा मेरे साथ?