भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

आया हूँ संग ओ ख़िश्त के अम्बार देख कर / 'अदीम' हाशमी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

आया हूँ संग ओ ख़िश्त के अम्बार देख कर
ख़ौफ़ आ रहा है साया-ए-दीवार देख कर

आँखें खुली रही हैं मेरी इंतिज़ार में
आए न ख़्वाब दीद-ए-बे-दार देख कर

ग़म की दुकान खोल के बैठा हुआ था मैं
आँसू निकल पड़े हैं ख़रीदार देख कर

क्या इल्म था फिसलने लगेंगे मेरे क़दम
मैं तो चला था राह को हम-वार देख कर

हर कोई पार-साई की उम्दा मिसाल था
दिल ख़ुश हुआ है एक गुनह-गार देख कर.