भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

आलौकिक दृश्य था वो / काजल भलोटिया

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

जब तुम एक क्षण के लिये
मेरे सामने आये और
मुझमें एक पल को ठहरे...

ठीक उसी पल जब मैंने
तुमसे सम्पर्क साधना चाहा
टूट गये सारे अनुबंध
तुम न उपस्थित ही रहे
न अनुपस्थित

नहीं जानती थी कोई वशीकरण मंत्र
की तुम्हें सम्मोहित कर
कुछ देर तुमसे संपर्क कर
जीवन के लय की बात करती

बताती तुम्हे की अकेले
जीवन सितार बजाने की कोशिश में
तुम कितना याद आते हो

कहती तुमसे की जब
साँझ नीली चादर ओढ़े
चुपचाप सायं सायं करता है
तब भी तुम्हारी बहुत याद आती है

बताती ये भी ...
की बारिशों में अकेली तार पर बैठी चिड़िया
जो अनमनापन महसूस करती है न
वही अनमनापन मुझे भी महसूस होता है

यूं भी स्मृतियों का अपना घर कहाँ होता है साथी
इसे तो जब मन हो जहाँ मन हो
कुछ देर वही अपना घर बना लेती है
समझती ही नहीं...
की इसके अचानक आ जाने से
कितना कुछ बिखर जाता है मेरा

उस वक़्त मैं मैं कहाँ रहती हूँ

फिर पीड़ाओं के खदकते गर्म कुंड से
आंखों के रास्ते एक धारा बह निकलती है
जो शायद मुझे मुक्त करने आती है
मुझमें एक नवसंचार का निर्माण कर
मेरा मैं होने तक!