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आस्था और विश्वास / हरीसिंह पाल
Kavita Kosh से
यह आस्था,
यह विश्वास
कहीं बिकते नहीं, कहीं मिलते नहीं
उपजते हैं अंतर्मन से
उखड़ते हैं अंतर्मन से।
ईश्वर कहीं बिकते नहीं, कहीं मिलते नहीं
ईश्वर कहीं जाते नहीं, आते नहीं कहीं से
हमारे अंतर्मन में बैठे हैं वह
हमारे अंतर्मन की आवाज से ही
साकार होते हैं।
वह कहीं सोए नहीं, कहीं खोए नहीं
खोए हैं हम, सोये हैं हम
यह आस्था, यह विश्वास
और यह ईश्वर, खुदा, गॉड,
जहाँ थे कभी, आज भी हैं वहीं
हमारे मतिभ्रम ने दूर कर दिया है इन्हें
बेच दिया है, दान में दे दिया है
चोरी कर लिया है, कैद कर दिया है
मंदिर, मस्जिद और गिरजाघर में
फिर ढूंढ़ते हैं उसे गली-गली,
पहाड़ों और रेगिस्तानों में
ऐसे कोई पा सका है
ईश्वर की आस्था को
और विश्वास को!