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इन दिनों / गिरिजा अरोड़ा
Kavita Kosh से
व्यर्थ बढ़ गई है काँव काँव
कौए मगर दिखते नहीं
दोस्त बेहिसाब बनते हैं
दिल में मगर बसते नहीं
आँखों को सुंदर लगते
मन को भी भाते हैं
खुशबू की खातिर
लोग इत्र लगाते हैं
पेड़ पौधे फ्रेमों में रखते
पत्ते जहाँ गिरते नहीं
नन्ही सी गोरैया प्यारी
प्लास्टिक की बनाते हैं
कृत्रिम घोंसले में रख
घर को सजाते हैं
चूँ चूँ चिड़िया की मीठी
घंटी भी वही लगाते हैं
चुग कर गा पाए चिड़िया
दाना वो रखते नहीं
बातें बहुत सुंदर सुंदर
सुनने को मिलती हैं रोज
तन सुंदर, घर सुंदर
जहां पड़े परछाई अपनी
सारा वातावरण सुंदर
कितनी तहें खोजूँ पर
मन अपने सजते नहीं