भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
उसकी हथेली और हमारी बात / फ़रीद खान
Kavita Kosh से
उसने हाथ बढ़ाया मेरी ओर
मैंने भी बढ़ कर हाथ मिलाया।
उसकी नर्म और गर्म हथेली बच्चों की सी थी।
मैंने हथेली भर कर उसका हाथ थाम लिया।
हम बात कुछ कर रहे थे,
सोच कुछ और रहे थे,
(बादल से फूल झर रहे थे।
मिट्टी से खुशबू उठ रही थी।)
पर हम साथ साथ समझ रहे थे,
कि यूँ हाथ मिलाना अच्छा लगता है।
रस्ता रोक कर यूँ बातें घुमाना अच्छा लगता है।
फिर दोनों ही झेंप गए।
संक्षेप में मुस्कुरा कर अपनी अपनी दिशा हो लिए।
किसी बहाने से अचानक मैं पलटा,
और वह जा चुकी थी।
कुछ सोच कर वह भी पलटी होगी,
और मैं जा चुका होऊँगा।
उस रास्ते पर अब रोज, उसी समय मैं आता हूँ।