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एक कविता पिरामिड से / महेश सन्तोषी

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मैं पिरामिड्स के सामने खड़ा हूँ
और उसमें लगे एक-एक चौकोर पत्थर की खूबसूरती पर
आनन्दविभोर हूँ, मुग्ध हूँ।

यहाँ थोड़ी सी इतिहास की धूल और रेत
किसी स्वर्णिम अतीत के अवशेष सी,
हवाओं के साथ उड़कर मुझे छू रही है।

कुछ सभ्यताएँ जब उत्कर्षों की सीढ़ियों पर चढ़ीं
उनकी नींव, सीढ़ियों के नीचे गुलामों की कराहें रहीं, चीखें रहीं।
समय आगे बढ़ता गया, सदियाँ आयी-गयीं,
जिन गुलामों ने इन्हें बनाया था, न कोई पहचान थी, न कभी बनी।

पर, जिन लोगों ने गुलामों से इन्हें बनवाया था
उनने सारी की सारी महानता ओढ़ ली, अपने नाम के साथ जोड़ ली।

इतिहास उन महानताओं का पाठ दोहराता रहा,
एक सबक था, याद कराता रहा।
मेरी पीठ के पीछे यह सबक स्फटिक सा एक सवाल बनकर खड़ा रहा,
में सामने पिरामिड्स की महानता का क़द आँखों में मन ही मन आँकता रहा!
समय के सफ़ों पर बिखरा, एक आधा-अधूरा फलसफा!!