भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
एक दिन फिर लौट कर मैं आऊँगा कहता था वो / शीन काफ़ निज़ाम
Kavita Kosh से
एक दिन फिर लौट कर मैं आऊँगा कहता था वो
मंज़रों में आँख सा बस जाऊँगा कहता था वो
मौसिमों के आईनों में शक्ल देखेंगे शजर
एक तिनका चोंच में ले आऊँगा कहता था वो
कश्तियाँ कागज़ की बच्चे छोड़ कर उठ जाएँगे
नदियों की मौज से टकराऊँगा कहता था वो
जब ज़मीं से आसमाँ तक इक खला रह जाएगा
दूरियों की दलदलों से आऊँगा कहता था वो
ज़ुल्मतों से डूब जाएगा ज़माने का ज़मीर
आसमाँ से आग लेकर आऊँगा कहता था वो
कोंपलें जब कसमसायेंगी नुमू के वास्ते
ख़ुद को खोने के लिए फिर आऊँगा कहता था वो
गर्दिशें ही गर्दिशें हों गोल में जब भी 'निज़ाम'
मैं ख़ला में ख़ाक सा खो जाऊँगा कहता था वो