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ओरछा के जंगल में / रामइकबाल सिंह 'राकेश'

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छाया सावन, उड़ते मतवाले कज्जल घन!
ऊपर, ऊपर ऊपर!
जैसे पंखोंवाले भूधर।

दूर-दूर तक चली गई हैं,
लता-झाड़ियाँ उलझी-छितरी।
मेघों के शुंडों से लीपी,
धरती की छाती पर उभरी।

नीचे, नीचे नीचे
छाया सावन!
नदी-किनारे, मोर झँकारे
बादर कारे!
थमती और बरसने लगतीं
बुँदियाँ फुइयाँ-फुइयाँ!
तन-मन को छू-छू लहराती
हवा सावनी गुंगलाती है;
लम्बे-लम्बे झांेके भरती पूर्वी के सुर में
जो लगती बर्छी-सी उर में।

नयन-मनहरण सदा रहें वन
गहन सघन विर्स्तीण!
रंग-बिरंगे वृक्ष विभिन्न,
धामन, सेजा, तिन्स, हल्दिया
नीम, पलाश, अशोक;
और करधई: जंगल की रानी
लहराती नीलम-श्री!

एक पुराना बरगद का वह पेड़ सामने
भीमकाय झंझाड़!
जिनमें दोफंकी शाखों के ऊपर
घास-फूस रेशों को लेकर;
कनकब्बे, पड़कुलियों ने हैं
लटका दिए घोंसले सुन्दर!
फूटीं जिनसे बरोहियाँ छतनार,
सहसभुजाएँ लम्बी पिच्छाकार पसार;
जंजीरों में जिनकी जकड़े-उलझे
शोषण के पंजे में सँकरे;
छोटे-छोटे बिरवे!
ज़ोर मार कर, इन्हें तोड़ कर
चाह रहे वे खुली हवा में जाना;
चाह रहे वे हो जाना आज़ाद!
आखि़र तो वे पूर्णकाम होंगे ही!
तोड़ रहे दम भीतर-भीतर,
मुरझाती शाखाएँ जातीं उनकी।

इधर-उधर पत्थर के ढोके
सेंधें कटीं दरारें जिनमें;
खुरचे गए बसूले से बढ़ई के
लुढ़के हुए पड़े अजगर-से।
जेसे छितरा दिया काल ने इन्हें
हथौड़े की चोटों से खंड-खंड कर;
और बना डाला लोढ़े को भी शिवशंकर
चिकने और खुरदुरे, गोलमटोल।
निर्जन में एकान्त,
खड़े हुए वन-वृक्ष तुम्बुलाकार।

हरित वर्णधर कोई खड्गाकार,
पत्र-पृष्ठ मख़मली किसी के;
लोमश, काँटेदार।
किसी-किसी पौधे के पत्ते,
शिखर सदन्तुर तीक्ष्ण;
किसी के कुंठित
और किसी के अन्य क़िस्म के और

कहीं किनारे अर्नुन और चिरौल!
वर्षों के पृथिवी के आदिमपुत्र
आगम कूप से सिंचित;
पीपल, पाकर।
चन्दनवर्णी सारवान सागौन,
तुंग मण्डलाकार।
चले गए ऊपर ऊँचे मेघों तक,
किरणों का अंचल के भीतर;
जिनके नहीं प्रवेशं
संगरार्थ सन्नद्ध,
फैला कानन दुर्गम!
चीतल, साँवर, रीछ, तेंदुए,
और शोर के विकट दुर्ग-सा।
यहीं पास ही जाती बहती
वेवती की धार;
अति जबरजंग!
नौरत्नों के कंठे भू के,
जीवन के ये विटप अनोखे भव्य
महनीय और सुन्दर-हरितागं।
निःस्वार्थ दृष्टि से करते आत्मोत्सर्ग
अयाचित व्रत जीवन में आजीवन।

देश-देश युग-युग में फैलीं
शत-सहस्र इनकी शाखाएँ;
इनके ही जीवन से फूटीं
निर्मल जलवाही सरिताएँ।

इनमें, इनकी बेलि-लताओं में ही
संचित अन्नपूर्ण-भंडार।
शक्कर, मिश्री, कन्द,
गिरि-जल-वायु-प्रदत्त
मेवे औ’ मकरन्द।
इनकी दृष्टि-भंगिमा से ही
ऋतु-सम्राट वसंत;
आन्दोलित करता अशान्ति से जग हो।
सूखे पदुप, टहनियाँ इनके
पत्ते झड़ते, सड़ते-गलते;
करते जन-मन के मरुथल को ऊर्वर।
लगती सृष्टि खोखली नंगी
ऊसर औ’ बलुई;
रह जाती बस छाँछ रेत की
परतीली, ढीली।

जो न धरा पर होते पौधे,
पेड़-लता, पर्णांग, फूल-फल!
इनके ही जीवन से जीवन जीवन
मरु नन्दन-वन!
छाया सावन!
उड़ते पंखोंवाले भूधर
बादल!
ऊपर, ऊपर, ऊपर!

(रचना-काल: दिसम्बर, 1948 ‘नया समाज’, फरवरी, 1949 में प्रकाशित।)