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ओरे विहंसग मेरे / रवीन्द्रनाथ ठाकुर
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ओरे विहंसग मेरे,
रह रहकर भूलता क्या स्वर है,
गाता ही जा, रूकता क्यों है ?
वाणी-हीन प्रभात हुआ जाता जो व्यर्थ है
जानता नहीं क्या इतना भी तू ?
अरूण-प्रकाश का प्रथम स्पर्श
तरू लताओं में लग रहा,
उनके कम्पन में तेरा ही तो स्वर
पत्ते-पत्ते में जाग रहा-
भोर के उजाले का कीमत है तू,
जानता नहीं क्या इतना भी तू ?
जागरण की लक्ष्मी यह रही
मेरे सिरहाने पर
बैठी है आँचल पसारे
जानता नहीं क्या इतना भी तू ?
गान के दान मं उसे
करना न वंचित तू।
दुख रात के स्वप्न तले
तेरी प्रभाती न जाने क्या तो बोल रही
नवीन प्राण की गीता,
जानता नहीं क्या इतना भी तू ?
‘उदयन’
संध्या: 17 फरवरी, 1941