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कविता की पहली हार / अरुण चन्द्र रॉय
Kavita Kosh से
आज जो चौकीदारी करता है
मेरे मोहल्ले में
वह जो चौक पर लगाता है
पंक्चर की दूकान
वही जो शाम को लगाएगा
भुट्टे का खोमचा
उबले हुए अण्डे की ठेली
सब्ज़ियों की दूकान
वह हमारी कविताओं में है,
हाँ, सही जानते हैं आप
उसे पढ़नी नहीं आती कविता
पढ़ना भी आता तो
कविता नहीं पढ़ता वह
किताबें देने पर कहता है
सुना दो, बाबूजी !
मैं कहता हूँ,
कवि लिखता है
सुनाता नहीं है
वह हँसता है और गुनगुनाने लगता है
किसी फ़िल्म का प्रसिद्ध गीत
पहली बार कविता ऐसे ही हारी होगी
जब किसी कवि ने सुनाने से मना किया होगा कविता
किसी अन पढ़े-लिखे को
आओ, बैठो
सुनाता हूँ मैं एक कविता ।