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कविता के रंग / कल्पना पंत

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मैं कविताओं में सात रंग
लिखना चाहती हूँ,
पर स्याह रंग बिखर जाता है;
दुनिया के कई हिस्से

उस रंग से
अन्धेरे की किताब लिखते हैं
मेरे देश में रहते हैं
कई फ़िरके़

इनसान नहीं मिलते
वे लाल रंग की जगह
का़बिज कर लेते हैं
और किसी के खून से
उसे इस क़दर भर देते हैं कि

प्रेम के रंग
के लिए जगह
नहीं रहती

आसमान अब
धुएँ से काला है
समन्दर का नीलापन
विकास के पास
गिरफ़्तार है
हरे रंग को
कँक्रीट निगल रहा है
पीला रंग
बड़ी तिजोरियों में है
बाक़ी रंग भी
अन्धेरे में घुल गए हैं

मुझे इन रंगों को उनकी
सही
जगह पर लाने वाले
ब्रश की तलाश है ।