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कि अपने शहर में, अपना नहीं ठिकाना है / तेजेन्द्र शर्मा

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अजब सी बात है, अजब सा ये फ़साना है
कि अपने शहर में, अपना नहीं ठिकाना है

वतन को छोड़, इस शहर से बनाया रिश्ता
यहां मगर न कोई यार, न याराना है

सुबह की सर्द हवाओं से लड़ता जाता हूँ
शाम तक थक के चूर हो के लौट आना है

मगर वो कुछ तो है, जो मुझको यहां रोके है
इसी को अब मुझे अपना वतन बनाना है

यहां समझते हैं इन्सान को सभी इंसां
तभी तो अब मुझे वापिस न गांव जाना है