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किसी रोज कहूंगी / निमिषा सिंघल

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किसी रोज़ कहूंगी तुमसे
तुम्हारा आना पतझड़ के बाद बसंत जैसा था।

उपेक्षित कोंपले मुरझा कर जीने की ललक खो रही थी
अचानक जी उठी प्रेम अमृत पा।
पत्थर में प्राण जैसे स्थापित हो गए तुम मुझसे
सूखे बांस से फूट पड़ती हैं कोंपले जिस प्रकार
मन में जाग उठी उमंगे फिर एक बार।
निहारने लगी दर्पण में मैं ख़ुद को फिर एक बार,
समा गए तुम इन आंखों में स्वप्न हो गए अंगीकार।
सूरज-सी मुस्कान लिये जीवन में आए
खोल हृदय द्वार।
मीठी-सी मुस्कान लिऐ अंधेरे सारे मिटा गए।
जीवन अभी बाक़ी है यह संदेश जता गए।
धरती पर बादलों की तरह बरस कर शस्य श्यामला बना गए।
जीवन परिवर्तन लाता है आशा का दीप जला गये।
अपनी स्नेहिल आंखों से
मुझ को मुझ से फिर मिला गए।