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क्रौंच वध / भाग - 2 / द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी

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इस मधुर प्रकृति के प्रांगण में
तमसा के सुन्दर कूलों में।
नव युग्म क्रौंच का झूल रहा
था पुलक-प्रेम के झूलों में॥

आगे का चिर साथी प्यारा
ले कर जा रहा कहाँ वन में।
क्षण-भर भी तो ऐसा विचार
आता था कब उसके मन में?

जिस ओर मस्त हो कर कोई
उनमें था एक पैर रखता।
दूसरा प्रेम में हो विभोर
उसके पीछे पीछे चलता॥

कैसा विचार? अपने प्रिय में
कब होती है किसको ांका।
यदि हुई तनिक भी तो निश्चय
है प्रेम वहाँ टिकता किसका?

फिर युग युग से सारा जग यह
सन्देश सुनाता आया है।
‘अन्धा है प्रेम’, मत्त प्रेमी
प्रिय की मतवाली छाया है॥

बढ़ते ही जाते थे सुदूर
पर बीच बीच में रुक रुक कर।
निज नेत्र सफल करते रहते
लख एक दूसरे को मुड़ कर॥

आ पहुँच ठहरते सरिता के
कल-कल करते मुखरित तट पर।
पीछे का साथी निकट पार्श्व
में आता झट हर्षित हो कर॥

कुछ क्षण सरिता के कल कोमल
गायन का मधुरामृत पीते।
उन्मत्त नाचने लगते थे
भर अपने कर्ण-कलश रीते॥

निज मृदुल चंचु के अग्र भाग
से एक दूसरे के तन में।
करते मीठी मीठी चोटें
हर्षित होते रहते मन में॥

हो जाते थे आहत दोनों
कोमल मधुमय चोटें खा कर।
कुछ क्षण के लिए पृथक हो कर
भग दूर खड़े होे जा कर॥

पर व्यक्त नहीं करते पीड़ा
की मृदु मिठास अपने मुख से।
मुँह फेर, फुलाते पंख, पुनः
लेते समेट, गाते सुख से॥

आनंद-नृत्य में हो विभोर
जब याद न थी तन कीरहती।
कूलों से फिसल मृदुल जोड़ी
सरिता में जा किलोल करती॥

लघु लोल लहरियों के बहाव
में तैर दूर कुछ जाते थे।
मन करता-झट फड़फडा पंख
भीगे, तट पर आ जाते थे॥

डैने पसार कर, फुला गात
लेते थे वे अपना सुन्दर।
लगता-करते विश्राम केलि-
क्रीड़ा से कुछ विथकित हो कर॥

कुछ क्षण व्यतीत हो जाने पर
भग जाते दूर कछारों में।
विचरण करते हो कर प्रमत्त
अपने ही मीठे प्यारों में॥

डैने फैला अपने अपने
मस्ती में इठलाते फिरते।
कुछ ‘कुरुच कुरुच’ की बोली में
अस्पष्ट बहकते-से रहते॥

उर हो जाता आसक्त देख
नव चपल क्रियाएँ मतवाली।
भगते दोनों फड़फड़ा पंख,
हो-हो कर प्रेमातुर भारी॥

जब हाथ नहीं आता कोई
कण दोनों चुगने लगते थे।
कण चुगने के ही मिस प्रतिक्षण
मृदु घात लगाये रहते थे॥

लखते रहते थे एक एक
की गति को तिरछी चितवन से।
कुछ सरक-सरक, धीमे-धीमे
खिंचते थे प्रेमाकर्षण से॥

जैसे जैसे यह युग्म चतुर
कुछ निकट पहुँचता जाता था।
पा अवसर कोई एक शीघ्र
झट झपट मार भग जाता था॥

सरिता के दो उपकूलों के
थे बीच मधुर क्रीड़ा करते।
ये कूल देख इनकी क्रीड़ा
लहरों से टकराते रहते॥

जब हृदय ऊब जाता भू पर
मृदु रंगरलियाँ करते करते।
जा पहुँच खेलते व्योम-बीच
क्रीड़ा करते, उड़ते-उड़ते॥

तैरते पवन के सागर में
स्वच्छन्द सतत पर फैला कर।
नीरव नभ का एकान्त प्रान्त
गुंजित करते कुछ गा-गा कर॥

मिल जाते नभ में युग्म और
ये भी उनमें हिलमिल जाते।
हो एक दूसरे के पीछे
माला-सी बन उड़ते जाते॥

मानो ये आँखमिचौली का
व खेल खेलते थे सुन्दर।
साथी न हमारा खोज सके,
पीछे चलते थे छिप-छिप कर॥

पर तनिक देर तक ही प्यारा
यह लुक छिपने का खेल मधुर।
चल पाता था; फिर दोनों ही
हो जाते दर्शन को आतुर॥

अविलंब तोड़ उस माला को
हो पृथक्, मुदित उड़ने लगते।
अपना अभिनव संसार एक
रच कर उसमें विचरण करते॥

जब हृदय चाहता छोड़ व्योम
धीमे-धीमे से घूम-घूम।
आ जाते उतर सरित-तट पर
बेसुध पागल-से झूम-झूम॥

लगता मानो नभ के तारे
दो उतर आ रहे हों भू पर!
दिन में क्रीड़ा की घात कहाँ
लग सकती थी उनकी ऊपर!

कुछ विथकित-से होकर दोनों
तट के जल में विचरण करते।
कर-कर निमग्न निज चंचु विमल
शीतल जीवन-रस-कण भरते॥

कर देते डैने भी निमग्न
अपने प्यारे प्यारे कोमल।
फिर उठाउन्हें, फड़फड़ा मृदुल,
करते अभिषेक स्वतः शीतल॥

हो जाती तुरत थकान दूर
शीतल जल के अभिसिंचन से।
आ जाते तट पर पुनः कूद
भर हृदय नवलतम जीवन से॥

फिर चल देते दोनों सुदूर
तमसा के रेतीले पथ पर।
करने लगते मधु प्रेम भरी
क्रीड़ाएँ सुन्दर कोमलतर॥

इस भाँति चल रहा था इनका
व्यापार मधुर रँगरलियों का।
कहने को थे दो रूप किंतु
था गंध एक इन कलियों का॥