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क्रौंच वध / भाग - 5 / द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी

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कर-बद्ध खड़ा था आखेटक,
शुक नयन कर रहे चरण स्पर्श।
कुछ मस्तक उठा; दबे स्वर में
बोला- ”ऋषिवर! क्यों यह अमर्ष?

जीविका-हेतु यह विव सकल
अपना प्रयत्न करता रहता।
जिसका जो भक्ष्य उसे पा कर
अपना पोषण करता रहता॥

जिसका जिस पर अधिकार यहाँ
क्या वह उसकी सम्पत्ति नहीं?
यदि है, तो फिर न किसी को भी
अपनाने में आपत्ति कहीं॥

नाना रूपों में जग विभक्त,
सब की स्थिति एक समान कहाँ?
कुछ भक्ष्य, रक्ष्य, निर्बल, पीड़ित,
कुछ भक्षक, रक्षक, सबल यहाँ॥

यह केवल नियति-चक्र ऋषिवर,
इसमें न किसी का दोष कहीं।
हर एक व्यक्ति का पृथक-पृथक्
है खुला भाग्य-लिपि-कोश यहीं॥

है जीव जीव का ही भक्षक
यह नियम प्रकृति का अविचल है।
निर्बल का है अस्तित्व कहाँ,
जीवन भीषण युद्ध-स्थल है॥

उसके संघर्ष-थपेड़ों को
जो सहन नहीं कर पाते हैं।
क्षण-भर में वे बलवती प्रकृति
के ग्रास मधुर बन जाते हैं॥

यदि परम्परा होती न यही,
निर्माण सदा होता रहता।
कैसे फिर प्रकृति-अंक में यह
सम्पूर्ण विश्व सोता रहता?

दो कदम उठाने तक का भी
मिलता न किसी को स्थान यहाँ।
यदि हाता ही न विनाश-
समाता जग का यह निर्माण कहाँ?

मेरा विश्वास यही ऋषिवर,
जग-जीवन के संचालन में।
फिर शाप बना दावाग्नि आज
क्यों मेरे जीवन-कानन में?“

सुन रहे तर्क सब वाल्मीकि
थे नेत्र रक्त औ’ चढ़े हुए।
निष्कम्प शिखा-सम ज्वलित गात
थे चित्र लिखे-से खड़े हुए॥

”चुप हो पापी!“ तर्जनी हिली,
हिल गयी भृकुटि, हिल गये ओष्ठ।
हिल गया सकल तन एक बार,
आखेटक का हिल गया कोष्ठ॥

बोले- ”जीविका-उपार्जन कब
किसने बतलाया पाप यहाँ?
पर ले कर उसकी ओट, चोट
देना बतला रे, लिखा कहाँ?

जिसका जो भक्ष्य उसी का है
उस पर अधिकार यहाँ निश्चय।
पर क्या अभक्ष्य औ’ भक्ष्य अरे,
इसका भी तो कुछ हो निर्णय॥

भांडार प्रकृति का खुला हुआ
तमसा के पुलिनों के ऊपर।
लहलहारहे हैं खेत, खड़ी
मंजरियाँ मीठे फल ले कर॥

बह रही दूध की मधु धारा
इस अखिल देश के प्रांगण में।
सात्त्विक प्रवृतियों का भोजन
बिखरा है जग के कण-कण में॥

क्या ये तेरी प्रज्वलित क्षुधा
को शान्त नहीं कर सकते हैं?
प्यासी जिह्वा पर अमृत की
ढुलका न बूँद दो सकते हैं?

क्या इन जीवों से ही तेरी
भर सकती है भूखी झोली?
मिलती है तुझको शांति देख
जलते इन जीवों की होली?

उस आदिम युग में जब न कहीं
जागरित हुई थी मानवता।
पोषण करती थी रक्त-मांस
से अपना घृणित पाशविकता॥

उस युग के ओ प्रतिनिधि नृशंस,
पशु की प्रवृत्ति के ओ प्रतीक!
क्योंपीट रहाहै मानवता
के इस युग में भी वही लीक?

युग बहुत बढ़ गया है आगे
तृण तृण, कण कण है जागरूक।
मानवता की ही माँस आज
कब रक्त-माँस की शेष भूख?

जो भक्ष्य समझता तू अपने
उन पर अधिकार सभी का है।
है वस्तु अनेक यहाँ ऐसी
बन्धन जिन पर न किसी का है॥

विहगावलियाँ हैं चहक-चहक
स्वच्छन्द फुदकती डालों पर।
उर्मियाँ सरित की गोदी से
आ उछल खेलतीं कूलों पर॥

हिमगिरि से निकल विमल झरने
झर झर कर बहते जाते हैं।
नभ के तारे झिलमिल अपनी
अनुपम आभा दिखलाते हैं॥

ये और अमित, इन पर सब का
अधिकार, व्यक्ति-सम्पत्ति नहीं।
यदि एक व्यक्ति ही अपनाये
होगी फिर क्यों आपत्ति नहीं?

सब लें आनन्द, नष्ट कने
का है इनको अधिकार किसे?
जो करे चेष्टा अनधिकार
है पाप-दण्ड तैयार उसे॥

औ’ नियति-चक्र कहते किसको?
यह केवल एक बहाना है।
शोषित मानव को, ले इसका
झूठा आश्रय, बहकाना है॥

शोषक छिप इसके परदे में
निर्मम प्रहार करता रहता।
निर्दोष निरीह प्राणियों का
भीषण संहार किया करता॥

उसके ही ‘भक्ष्य’ और ‘भक्षक’
कुछ ‘निर्बल-पीड़ित, दीन-हीन’।
कुछ ‘रक्ष्य’ और ‘रक्षक’ जग के
ये क्रूर विभाजन हैं नवीन॥

उस भाग्य-कोश में ही उसको
इनका भी अर्थ सही मिलता।
उनके अतिरिक्त बता तू ही
क्या इनकाअर्थ कहीं मिलता?

जग में सब की समान स्थिति है
अधिकार मूल सब के समान।
जो दीख रहा वैषम्य आज
वह क्रूर स्वार्थ का ही प्रमाण॥

सम्पूर्ण विश्व है ग्रथित एक
सम्बन्ध सूत्र में अविच्छिन्न।
जिसको कहता रे अनेकत्व
वह एक तत्त्व का रूप भिन्न॥

उन्मुख उस विश्व-आत्मा की
हीओर जगत् के सब विधान।
मानव के कार्य-कलापों का
उनमें है उच्च विशेष स्थान॥

वह बुद्धि-विवेक-तुला ले कर
इस भू-मण्डल पर आया है।
मानव-पशु का अन्तर सृष्टा
इस बल पर ही कर पाया है॥

क्या उचित और अनुचित इसका
निर्णय कब पशु कर सकते हैं।
हैं कहाँ विवेक-शक्ति उनमें
वे सोच न उतना सकते हैं॥

पाशविक परिधि के घेरे के
बाहर वे कब हैं जा पाते?
अपने ही निर्बल सजातीय
भक्षण उनके हैं बन जाते॥

है जीव जीव का ही भक्षक
यह नियम प्रकृति का अविचल है।
पर कृमि-कीटों-पशुओं के जग
तक ही उसका सीमा-स्थल है॥

उनमें पाशविक वृत्तियों की
एकान्त प्रबलता होती है।
दुर्दान्त हृदय के कोने में
चेतना दबी-सी सोती है॥

हाँ, उनके अन्तरतम में भी
बहतीं कुद कोमल धाराएँ।
मेघाच्छादित उर-व्योम बीच
झिलमिल करतीं कुछ ताराएँ?

लहराता रहता है जीवन
मृदु स्नेह-प्रेम की लहरों में।
पाशविक वृत्तियों की कटुता
दबती उन मीठे पहरों में॥

पर अपनों ही को अभिसिंचित
करती उनकी वह मधु धारा।
जकड़े रखती है स्वार्थ-
शृंखला में उनकी वह कटु कारा॥

अपनी उन मधुर वृत्तियों का
विस्तर नहीं कर पाते वे।
अपनों से अलग कभी कोई
संसार नहीं रच पाते वे॥

मानव पशु की संकीर्ण परिधि
का उल्लंघन कर जाता है।
परिवार सकल विस्तीर्ण विश्व
उसका अपना बन जाता है॥

क्यों हो न? उसे अनुपम उदात्त
वृत्तियाँ शील-करुणा समान
हैं मिली; मानवेतर किसमें
ऐसा अपूर्व सुन्दर विधान?

बस इन्हीं वृत्तियों के बल पर
मानव है आज बना मानव।
है सतत देखता अनेकत्व
में एक आत्मा का वैभव॥

मानव-विकास के सुन्दरतम
ये भाव चिरन्तन मंगलमय।
जीवन को खंड खंड करने
वाले थे भाव अमंगलमय॥

इस स्वर्ग-समान पुनीत देश
में तमसा के पावन तट पर।
तू कुत्सित भाव अपावन ये
अभिव्यक्त कर रहा है क्यों कर?

क्यों स्नेह-भरे नयनों से वह
मधु मिलन प्रकृति की ओली का
लख सका न तू? भर लिया पेट
हिंसा की भूखी झोली का!!

अपने को सबल बनाने की
है बात मुझे नबुरी लगती।
पर औरों का पी रक्त, रक्त
होना आत्मा न देख सकती॥

स्वच्छन्द विचरते जीवों पर
धोखे से अस्त्र चला देना।
भक्षण कर रक्त-मांस उनका
अपने को रक्त बना लेना॥

ये कर्म असभ्य प्राणियों के
हम कभी नहीं कर सकते हैं।
हाँ उचित स्वत्व के लिए युद्ध
में डट कर हम लड़ सकते हैं॥

अभिमान हमें अपने बल का
आश्रय हम कब किसका लेते?
कण कण कम्पित कर एक एक
भू-मण्डल को थर्रा देते॥

जो निर्बल हैं उनकी रक्षा
करना भी धर्म हमारा है।
उनके स्वत्वों के लिए युद्ध
करना भी कर्म हमारा है॥

निर्माण-नाश की परम्परा
में ही यह जग चलता आया।
उनके साँचों में ही निश्चय
उसका स्वरूप ढलता आया॥

पर क्या इसका यह अर्थ कि जो
निर्बल उनका हम नाश करें?
भक्षण कर उनके प्राणों का
अपने प्राणों में श्वास भरें?

हो उनकी अस्थि-ढ़ेरियों पर
निर्माण हमरे जीवन का?
क्या उनके रक्त-कणों से हो
निर्माण हमारे कण-कण का?

अधिकार छीन लेने का क्या
वह वस्तु, न जो दी हो हमने?
अधिकार नाश करने का क्या
निर्मित जो वस्तु न की हमने?

जिस स्रष्टा ने निर्माण किया
इस अखिल सृष्टि के जीवन का।
उसको ही है अधिकार नाश
करने का उसके कण-कण का॥

है संचालक वह कुशल, ज्ञात
उसको विधि सृष्टि चलाने की।
है कहाँ शक्ति हममें उसका
पत्ता तक एक हिलाने की?

यह प्रकृति स्वयं निर्माण-नाश
की तुला हाथ में रखती है॥
स्रष्टा के मनोनुकूल सदा
संतुलन सृष्टि का करती है॥

हाँ, जीवन है संग्राम-भूमि
संघर्षण तृण-तृण कण-कण में।
निश्चय, जिनमें है बल विशेष
रुकते हैं वही प्रभंजन में॥

पर ‘बल’ की परिभाषा तेरी
शारीरिकता में सीमित है।
भौतिकता की दृढ़ मांस-
पेशियों में ही वह उन्मीलित है॥

यह क्रूर कर्म जो किया आज
वह भी तेरी परिभाषा का
बन रहा प्रमाण प्रबल, मैं भी
कर रहा पठन उस भाषा का॥

पढ़ उसे लग रहा मुझे स्वयं
जग में क्या अब कुछ शेष नहीं?
शारीरिकता का राज्य सिर्फ;
क्या आत्मशक्ति का लेश नहीं?

जिस ओर देखता उसी ओर
है धधक रही भीषण ज्वाला।
शारीरिक बल में मत्त विश्व
है खड़ा लिए विष का प्याला!!

पर शारीरिकता का जग मैं
अस्तित्व यहाँ पर है कितना।
गर्जन कर जीवन नष्ट स्वयं
करने में समय लगे जितना॥

उसमें हिंसा प्रतिहिंसा की
भावना सदा चंचल रहती।
औ’ आत्मशक्ति में सत्य-
अहिंसा की भावना प्रबल रहती॥

हिंसा दानवता की सूचक
मानवता का लवलेश नहीं।
जो विश्व हुआ हिंसक, नृशंस
उसका अस्तित्व न शेष कहीं!!

तू देख रहा अपने सम्मुख
इसका प्रत्यक्ष प्रमाण यहाँ।
उस जग का तूने किया नाश
तेरा जग भी अवशिष्ट कहाँ?

जो कहें-अहिंसा दुर्बलता,
कायरता, पंगु बनाती है।
है धर्म नपुंसक वीरों का
पथ में कण्टक बिखराती है॥’

यह भ्रान्त धारणा है उनकी
जो आत्मशक्ति से रिक्त यहाँ।
हैं भीरु-हृदय, पौरुष-विहीन,
मानव कहलाते व्यर्थ यहाँ॥

यह शस्त्र अहिंसा का प्रचंड
दुर्बल हाथांे का खेल नहीं।
जर्जर कंपित विलासिता का
हो सकता उससे मेल नहीं॥

वीरों का ही शृंगार श्रेष्ठ
चेतनमय चिर सुन्दर महान।
मस्तक पर रेख खींच स्वर्णिम
जलता जैसे नव अंशुमान॥

हिंसा के क्रूर नृशंस भाव
नत मस्तक हो जाते क्षण में।
सर्वत्र व्याप्त इसका प्रभाव
है अन्तरिक्ष के कण-कण में॥

जब तक संसार अहिंसा की
भावना नहीं अपनायेगा।
मानव बन भीषण प्रलय-घटा
सम्पूर्ण विश्व पर छायेगा॥

हाँ, हिंसा के उपकरणों का
हमको विनाश करना होगा।
उस पर ही दृढ़ साम्राज्य-
अहिंसा का जग में स्थापित होगा॥

मानव हो कर भी यदि पशुओं
का-सा होगा व्यवहार कहीं।
मानव कहलाने का हम को
होगा कोई अधिकार नहीं॥

तू मानव है, मानवता को
रे नीचे कहाँ गिरा लाया।
भीतर जघन्य पशुता तुझ में
ऊपर बस मानव की काया॥

‘पशुता का चोला पहन आज
आया होता मेरे सम्मुख।
निन्दित-गर्हित-कुत्सित कुकर्म
से मुझे न होता इतना दुख॥

पर तूने मानव के ललाट
पर लगा दिया ऐसा टीका।
जिसके सम्मुख भादव-कुहु का
गिरि-गुहा सघन तम भी फीका

इस पशुता का आश्रय लेकर
कर रहा आज रक्षा अपनी?
विश्वात्मवाद को भूल, बना
है स्वार्थ-वाण की गरल अनी॥

उसके ही बोझिल भारों में
मानवता तेरी कुचल गयी।
जिह्वा के हिंसक स्वादों में
दानवता तेरी मचल गयी॥

तू दानव है और तुझ जैसे
यदि हुए एक दो और कहीं।
निश्चय यह विश्व रसातल में
जाने वाला है देर नहीं॥

पर आशा है इस दानवता
का होगा रे अविलंब अन्त।
संसृति के शुभ कल्याण-हेतु
अवतरित शक्ति होगी अनन्त॥

होगा कोई इस विश्व-व्योम
में उदित चन्द्र यश-प्रभा पूर्ण।
जग की विपत्तियांे का विराम
अविराम करेगा तिमिर चूर्ण॥

उसके प्रकाश से ही होगा
उज्ज्वल जग का कोना-कोना।
बरसेगा उसकी धवल कान्ति
से ही अवनी-तल पर सोना॥

मानव का उच्चादर्श पुनः
स्थापित होगा इस जगती में।
दानव का दानवत्व भीषण
झुक समा जायगा धरती में॥

जग विश्व-मैत्री, विश्व प्रेम
करुणा के कोमल झूलों में
झूलेगा, होगी गन्ध और
जीवन के खिलते फूलों में॥

मीठे सपने हैं सत्य आज
कल्पना कहेगी कविता की।
नव भाव-उर्मियों से होगी
रचना नव जीवन-सरिता की॥

लहरायेगा यह दिग्दिगनत
निर्माण विश्व का फिर होगा।
प्राणी-प्राणी की वाणी में
वीणा का मंगल स्वर होगा॥

मैं देख रहा यह स्वप्न आज
इस रजनी की अँधियारी में।
वह क्षितिज लीन है धवल कान्ति
बिखराने की तैयारी में॥“