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खण्ड-7 / यहाँ कौन भयभीत है / दीनानाथ सुमित्र

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121
इस असत्य के सिंधु में, ढूँढ सत्य का द्वीप।
पाते गोताखोर ही, मोती वाला सीप।।

122
चुन-चुन कर हम थक गये, मिला न मन का मीत।
नहीं मिलेगा ज्ञात है, गई जिंदगी बीत।।

123
सत्तर से ऊपर प्रिया, झुर्री वाले गाल।
फिर भी वह कश्मीर सी, फिर भी वह बंगाल।।

124
मिट जायेगा देश से, सारा भ्रष्टाचार।
यदि हम अपना स्वयं का, बदलें कुछ व्यवहार।।

125
फागुन महामलंग है, रखता हृदय उमंग।
घूम रहा है जगत में, बाँट रहा रस-रंग।।

126
जो संसद मलहीन हो, तो भारत मलहीन।
कहीं नहीं दिख पायगा, कोई दुर्बल दीन।।

127
सिखलाने आया हमें, होली का त्योहार।
अनुपम सारी सृष्टि है, करो डूब कर प्यार।।

128
मत उसको मतदान कर, जो मत के विपरीत।
वर्ना जनता के लिये, होगा गम का गीत।।

129
जगह नहीं सच के लिए, झूठ मचाए शोर।
चोर कह रहा चीख कर, लो मैं पकड़ा चोर।।

130
भाषण-भूषण छोड़िए, करिए सच्चा काम।
व्यर्थ भीड़ की चाह यह, कर देगी बदनाम।।

131
जुड़े तुम्हीं से गीत हैं, जुड़ी तुम्हीं से प्रीत।
तू ही सब दुख की दवा, ओ मेरे मनमीत।।

132
अब भी मेरे साथ है, माँ का आशीर्वाद।
सुख का सागर लहरता, दुख से हूँ आजाद।।

133
जितना खर्च चुनाव पर, करता अपना देश।
शिक्षा पर करता अगर, सुंदर होता वेष।।

134
नहीं त्यागना रस कभी, नहीं त्यागना छंद।
कवि तुम रवि यदि हो गए, छिप जायेगा चंद।।

135
कब तक रोयेगा भला, रामकृष्ण का देश।
अंध कूप में बंद है, उनका ही संदेश।।

136
मेरा प्रश्न विराट था, माँ से बढ़ कर कौन?
सारी धरती मौन थी, पूरा नभ था मौन।।

137
पेट सभी के हों भरे, तन पर हों परिधान।
तब जाकर हो पायगा, अपना देश महान।।

138
फिर से जन के सामने, आया आम चुनाव।
आयेंगे महराज के, फिर धरती पर पाँव।।

139
सिर्फ उसी को प्राप्त हो, ममता पर अधिकार।
माँ की पूजा को किया, जिसने है त्योहार।।

140
माँ सागर है प्रेम का, गहरा माँ-सा कौन।
उत्तर मैं पाया नहीं, सारा जग है मौन।।